लेनिन (1899)

हड़तालों के विषय में – लेनिन


1899 के अन्त में लिखित।पहले पहल 1924 में प्रकाशित। अंग्रेजी से अनूदित


इधर कुछ वर्षों से रूस में मजदूरों की हड़तालें बारम्बार हो रही हैं। एक भी ऐसी औद्योगिक गुबेर्निया नहीं है, जहाँ कई हड़तालें न हुई हों। और बड़े शहरों में तो हड़तालें कभी रुकती ही नहीं। इसलिए यह बोधगम्य बात है कि वर्ग-सचेत मजदूर तथा समाजवादी हड़तालों के महत्‍व, उन्हें संचालित करने की विधियों तथा उनमें भाग लेने वाले समाजवादियों के कार्यभारों के प्रश्न में अधिकाधिक सतत रूप में दिलचस्पी लेते हैं।

हम यहाँ इन प्रश्नों के विषय में अपने विचारों की रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। अपने पहले लेख में हमारी योजना आमतौर पर मजदूर वर्ग आन्दोलन में हड़तालों के महत्व की चर्चा करने की है; दूसरे लेख में हम रूस में हड़ताल-विरोधी कानूनों की चर्चा करेंगे तथा तीसरे में इस बात की चर्चा करेंगे कि रूस में हड़तालें किस तरह की जाती थीं और की जाती हैं तथा उनके प्रति वर्ग-सचेत मजदूरों को क्या रुख अपनाना चाहिए:-

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सबसे पहले हमें हड़तालों के शुरू होने और फैलने का कारण ढूँढ़ना चाहिए। यदि कोई आदमी हड़तालों को याद करेगा, जिनकी उसे व्यक्तिगत अनुभव से, दूसरों से सुनी रिपोर्टों या अखबारों की खबरों के माध्‍यम से जानकारी प्राप्त हुई हो, तो वह तुरन्त देख लेगा कि जहाँ कहीं बड़ी फैक्टरियाँ हैं तथा उनकी संख्या बढ़ती जाती है, वहाँ हड़तालें होती तथा फैलती हैं। सैकड़ों (कभी-कभी हजारों तक) लोगों को काम पर रखने वाली बड़ी फैक्टरियों में एक भी ऐसी फैक्टरी ढूँढ़ना सम्भव नहीं होगा, जहाँ हड़तालें न हुई हों। जब रूस में केवल चन्द बड़ी फैक्टरियाँ थीं, तो हड़तालें भी कम होती थीं। परन्तु जब से बड़े औद्योगिक जिलों और नये नगरों तथा गाँवों में बड़ी फैक्टरियों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है, हड़तालें बारम्बार होने लगी हैं।

क्या कारण है कि बड़े पैमाने का फैक्टरी उत्पादन हमेशा हड़तालों को जन्म देता है? इसका कारण यह है कि पूँजीवाद मालिकों के खिलाफ मजदूरों के संघर्ष को लाजिमी तौर पर जन्म देता है तथा जहाँ उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है, वहाँ संघर्ष अनिवार्य ढंग से हड़तालों का रूप ग्रहण करता है।

आइये, इस पर प्रकाश डालें।

पूँजीवाद नाम उस सामाजिक व्यवस्था को दिया गया है, जिसके अन्तर्गत जमीन, फैक्टरियाँ, औजार आदि पर थोड़े-से भूस्वामियों तथा पूँजीपतियों का स्वामित्व होता है, जबकि जनसमुदाय के पास कोई सम्पत्ति नहीं होती या बहुत कम होती है तथा वह उजरती मजदूर बनने के लिए बाध्‍य होता है। भूस्वामी तथा फैक्टरी मालिक मजदूरों को उजरत पर रखते हैं और उनसे इस या उस किस्म का माल तैयार कराते हैं, जिसे वे मण्डी में बेचते हैं। इसके अलावा फैक्टरी मालिक मजदूरों को केवल इतनी मजदूरी देते हैं, जो उनके तथा उनके परिवारों के मात्र निर्वाह की व्यवस्था करती है, जबकि इस परिमाण से ऊपर मजदूर जितना भी पैदा करता है, वह फैक्टरी मालिक की जेब में उसके मुनाफे के रूप में चला जाता है। इस प्रकार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत जन समुदाय दूसरों का उजरती मजदूर होता है, वह अपने लिए काम नहीं करता, अपितु मजदूरी पाने के वास्ते मालिकों के लिए काम करता है। यह बात समझ में आने वाली है कि मालिक हमेशा मजदूरी घटाने का प्रयत्न करते हैं : मजदूरों को वे जितना कम देंगे, उनका मुनाफा उतना ही अधिक होगा। मजदूर अधिक से अधिक मजदूरी हासिल करने का प्रयत्न करते हैं, ताकि अपने परिवारों को पर्याप्त और पौष्टिक भोजन दे सकें, अच्छे घरों में रह सकें, दूसरे लोगों की तरह अच्छे कपड़े पहन सकें तथा भिखारियों की तरह न लगें। इस प्रकार मालिकों तथा मजदूरों के बीच मजदूरी की वजह से निरन्तर संघर्ष चल रहा है; मालिक जिस किसी मजदूर को उपयुक्त समझता है, उसे उजरत पर हासिल करने के लिए स्वतन्त्र है, इसलिए वह सबसे सस्ते मजदूर की तलाश करता है। मजदूर अपनी मर्जी के मालिक को अपना श्रम उजरत पर देने के लिए स्वतन्त्र है, इस तरह वह सबसे महँगे मालिक की तलाश करता है, जो उसे सबसे ज्यादा देगा। मजदूर चाहे देहात में काम करे या शहर में, वह अपना श्रम उजरत पर चाहे जमींदार को दे या धनी किसान को, ठेकेदार को अथवा फैक्टरी मालिक को, वह हमेशा मालिक के साथ मोल-भाव करता है, मजदूरी के लिए उससे संघर्ष करता है।

परन्तु क्या एक मजदूर के लिए अकेले संघर्ष करना सम्भव है? मेहनतकश लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है : किसान तबाह हो रहे हैं तथा वे देहात से शहर या फैक्टरी की ओर भाग रहे हैं। जमींदार तथा फैक्टरी मालिक मशीनें लगा रहे हैं, जो मजदूरों को उनके काम से वंचित करती रही हैं। शहरों में बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है तथा गाँवों में अधिकाधिक लोग भिखारी बनते जा रहे हैं; जो भूखे हैं, वे मजदूरी के स्तर को निरन्तर नीचे पहुँचा रहे हैं। मजदूर के लिए अकेले मालिक से टक्कर लेना असम्भव हो जाता है। यदि मजदूर अच्छी मजदूरी माँगता है अथवा मजदूरी में कटौती से असहमत होने का प्रयत्न करता है, तो मालिक उसे बाहर निकल जाने के लिए कहता है, क्योंकि दरवाजे पर बहुत-से भूखे लोग खड़े होते हैं, जो कम मजदूरी पर काम करने के लिए सहर्ष तैयार हो जायेंगे।

जब लोग इस हद तक तबाह हो जाते हैं कि शहरों और गाँवों में बेरोजगारों की हमेशा बहुत बड़ी तादाद रहती है, जब फैक्टरी मालिक अथाह मुनाफे खसोटते हैं तथा छोटे मालिकों को करोड़पति बाहर धकेल देते हैं, तब व्यक्तिगत रूप से मजदूर पूँजीपति के सामने सर्वथा असहाय हो जाता है। तब पूँजीपति के लिए मजदूर को पूरी तरह कुचलना, दास मजदूर के रूप में उसे और निस्सन्देह अकेले उसे ही नहीं, वरन उसके साथ उसकी पत्नी तथा बच्चों को भी मौत की ओर धकेलना सम्भव हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि हम उन व्यवसायों को लें, जिनमें मजदूर अभी तक कानून का संरक्षण हासिल नहीं कर सकते हैं तथा जिनमें वे पूँजीपतियों का प्रतिरोध नहीं कर सकते, तो हम वहाँ असाधारण रूप से लम्बा कार्य-दिवस देखेंगे, जो कभी-कभी 17 से लेकर 19 घण्टे तक का होता है, हम 5 या 6 वर्ष के बच्चों को कमरतोड़ काम करते हुए देखेंगे, हम स्थायी रूप से ऐसे भूखे लोगों की एक पूरी पीढ़ी देखेंगे, जो धीरे-धीरे भूख के कारण मौत के मुँह में पहुँच रहे हैं। उदाहरण हैं वे मजदूर, जो पूँजीपतियों के लिए अपने घरों पर काम करते हैं; इसके अलावा कोई भी मजदूर बीसियों दूसरे उदाहरणों को याद कर सकता है! दासप्रथा या भूदास प्रथा के अन्तर्गत भी मेहनतकश जनता का कभी इतना भयंकर उत्पीड़न नहीं हुआ, जितना कि पूँजीवाद के अन्तर्गत हो रहा है, जब मजदूर प्रतिरोध नहीं कर पाते या ऐसे कानूनों का संरक्षण प्राप्त नहीं कर सकते, जो मालिकों की मनमानी कार्रवाइयों पर अंकुश लगाते हों।

इस तरह अपने को इस घोर दुर्दशा में पहुँचने से रोकने के लिए मजदूर व्यग्रतापूर्वक संघर्ष शुरू कर देते हैं। मजदूर यह देखकर कि उनमें से हरेक व्यक्तिश: सर्वथा असहाय है तथा पूँजी का उत्पीड़न उसे कुचल डालने का खतरा पैदा कर रहा है, संयुक्त रूप से अपने मालिकों के विरुध्द विद्रोह शुरू कर देते हैं। मजदूरों की हड़तालें शुरू हो जाती हैं। आरम्भ में तो मजदूर यह नहीं समझ पाते कि वे क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं, उनमें इस बात की चेतना का अभाव होता है कि वे अपनी कार्रवाई किस वास्ते कर रहे हैं : वे महज मशीनें तोड़ते हैं तथा फैक्टरियों को नष्ट करते हैं। वे फैक्टरी मालिकों को महज अपना रोष दिखाना चाहते हैं; वे अभी यह समझे बिना कि उनकी स्थिति इतनी असहाय क्यों है तथा उन्हें किस चीज के लिए प्रयास करना चाहिए, असह्य स्थिति से बाहर निकलने के लिए अपनी संयुक्त शक्ति की आजमाइश करते हैं।

तमाम देशों में मजदूरों के रोष ने पहले छिटपुट विद्रोहों का रूप ग्रहण किया – रूस में पुलिस तथा फैक्टरी मालिक उन्हें “गदर” के नाम से पुकारते हैं। तमाम देशों में इन छुटपुट विद्रोहों ने, एक ओर, कमोबेश शान्तिपूर्ण हड़तालों को और दूसरी ओर, अपनी मुक्ति हेतु मजदूर वर्ग के चहुँमुखी संघर्ष को जन्म दिया।

मजदूर वर्ग के संघर्ष के लिए हड़तालों (काम रोकने) का क्या महत्व है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें पहले हड़तालों की पूरी तस्वीर हासिल करनी चाहिए। जैसाकि हम देख चुके हैं, मजदूर की मजदूरी मालिक तथा मजदूर के बीच करार द्वारा निर्धारित होती है और यदि इन परिस्थितियों में निजी तौर पर मजदूर पूरी तरह असहाय है, तो जाहिर है कि मजदूरों को अपनी माँगों के लिए संयुक्त रूप से लड़ना चाहिए, वे मालिकों को मजदूरी घटाने से रोकने के लिए अथवा अधिक मजदूरी हासिल करने के लिए हड़तालें संगठित करने के वास्ते बाधित होते हैं। यह एक तथ्य है कि पूँजीवादी व्यवस्था वाले हर देश में मजदूरों की हड़तालें होती हैं। सर्वत्र, तमाम यूरोपीय देशों तथा अमरीका में मजदूर ऐक्यबध्द न होने पर अपने को असहाय पाते हैं; वे या तो हड़ताल करके या हड़ताल करने की धमकी देकर केवल संयुक्त रूप से ही मालिकों का प्रतिरोध कर सकते हैं। ज्यों-ज्यों पूँजीवाद का विकास होता जाता है, ज्यों-ज्यों फैक्टरियाँ अधिकाधिक तीव्र गति से खुलती जाती हैं, ज्यों-ज्यों छोटे पूँजीपतियों को बड़े पूँजीपति बाहर धकेलते जाते हैं, मजदूरों द्वारा संयुक्त प्रतिरोध किये जाने की आवश्यकता त्यों-त्यों तात्कालिक होती जाती है, क्योंकि बेरोजगारी बढ़ती जाती है, पूँजीपतियों के बीच, जो सस्ती से सस्ती लागत पर अपना माल तैयार करने का प्रयास करते हैं (ऐसा करने के वास्ते उन्हें मजदूरों को कम से कम देना होगा), प्रतियोगिता तीव्र होती जाती है तथा उद्योग में उतार-चढ़ाव अधिक तीक्ष्ण तथा संकट अधिक उग्र होते जाते हैं। जब उद्योग फलता-फूलता है, फैक्टरी मालिक बहुत मुनाफा कमाते हैं, परन्तु वे उसमें मजदूरों को भागीदार बनाने की बात नहीं सोचते। परन्तु जब संकट पैदा हो जाता है, तो फैक्टरी मालिक नुकसान मजदूरों के मत्थे मढ़ने का प्रयत्न करते हैं। पूँजीवादी समाज में हड़तालों की आवश्यकता को यूरोपीय देशों में हरेक इस हद तक स्वीकार कर चुका है कि उन देशों में कानून हड़तालें संगठित किये जाने की मनाही नहीं करता; केवल रूस में ही हड़तालों के विरुध्द भयावह कानून अब भी लागू है (इन कानूनों और उनके लागू किये जाने के बारे में हम किसी और मौके पर बात करेंगे)।

कुछ भी हो, हड़तालें जो ठीक पूँजीवादी समाज के स्वरूप के कारण जन्म लेती हैं, समाज की उस व्यवस्था के विरुध्द मजदूर वर्ग के संघर्ष की शुरुआत की द्योतक होती हैं। अमीर पूँजीपतियों का अलग-अलग, सम्पत्तिहीन मजदूरों द्वारा सामना किया जाना मजदूरों के पूर्ण दास बनने का द्योतक होता है। परन्तु जब ये ही सम्पत्तिहीन मजदूर ऐक्यबध्द हो जाते हैं, तो स्थिति बदल जाती है। यदि पूँजीपति ऐसे मजदूर नहीं ढूँढ़ पायें, जो अपनी श्रम-शक्ति को पूँजीपतियों के औजारों और सामग्री पर लगाने और नयी दौलत पैदा करने के लिए तैयार हों, तो फिर कोई भी दौलत पूँजीपतियों के लिए लाभकर नहीं हो सकती। जब तक मजदूरों को पूँजीपतियों के साथ निजी आधार पर सम्बन्ध रखना पड़ता है, वे ऐसे वास्तविक दास बने रहते हैं, जिन्हें रोटी का एक टुकड़ा हासिल कर सकने के लिए दूसरे को लाभ पहुँचाने के वास्ते निरन्तर काम करना होगा, जिन्हें हमेशा आज्ञाकारी तथा मूक उजरती नौकर बना रहना होगा। परन्तु जब मजदूर संयुक्त रूप में अपनी माँग पेश करते हैं और थैलीशाहों के आगे झुकने से इंकार करते हैं, तो वे दास नहीं रहते, वे इन्सान बन जाते हैं, वे यह माँग करने लगते हैं कि उनके श्रम से मुट्ठीभर परजीवियों का ही हितसाधन नहीं होना चाहिए, अपितु उसे इन लोगों को भी, जो काम करते हैं, इन्सानों की तरह जीवनयापन करने में सक्षम बनाना चाहिए। दास स्वामी बनने की माँग पेश करने लगते हैं – वे उस तरह काम करना और रहना नहीं चाहते, जिस तरह जमींदार और पूँजीपति चाहते हैं, बल्कि वे उस तरह काम करना और रहना चाहते हैं, जिस तरह स्वयं मेहनतकश जन चाहते हैं। हड़तालें इसलिए पूँजीपतियों में सदा भय पैदा करती हैं कि वे उनकी प्रभुता पर कुठाराघात करती हैं।

जर्मन मजदूरों का एक गीत मजदूर वर्ग के बारे में कहता है : “यदि चाहे तुम्हारी बलशाली भुजाएँ, हो जायेंगे सारे चक्के जाम"। और यह एक वास्तविकता है : फैक्टरियाँ, जमींदार की जमीन, मशीनें, रेलें, आदि से एक विराट यन्त्र के चक्के की तरह हैं, उस यन्त्र की तरह, जो विभिन्न उत्पाद हासिल करता है, उन्हें परिष्कृत करता है तथा निर्दिष्ट स्थान को भेजता है। इस पूरे यन्त्र को गतिमान करता है मजदूर, जो खेत जोतता है, खानों से खनिज पदार्थ निकालता है, फैक्टरियों में माल तैयार करता है, मकानों, वर्कशापों और रेलों का निर्माण करता है। जब मजदूर काम करने से इन्कार कर देते हैं, इस पूरे यन्त्र के ठप होने का खतरा पैदा हो जाता है। हरेक हड़ताल पूँजीपतियों को याद दिलाती है कि वे नहीं, वरन मजदूर, वे मजदूर वास्तविक स्वामी हैं, जो अधिकाधिक ऊँचे स्वर में अपने अधिकारों की घोषणा कर रहे हैं। हरेक हड़ताल मजदूरों को याद दिलाती है कि उनकी स्थिति असहाय नहीं है, कि वे अकेले नहीं हैं। जरा देखें कि हड़तालों का स्वयं हड़तालियों पर तथा किसी पड़ोस की या नजदीक की फैक्टरियों में या एक ही उद्योग की फैक्टरियों में काम करने वाले मजदूरों, दोनों पर कितना जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। सामान्य, शान्तिपूर्ण समय में मजदूर बड़बड़ाहट किये बिना अपना काम करता है, मालिक की बात का प्रतिवाद नहीं करता, अपनी हालत पर बहस नहीं करता। हड़तालों के समय वह अपनी माँगें ऊँची आवाज में पेश करता है, वह मालिकों को उनके सारे दुर्व्‍यवहारों की याद दिलाता है, वह अपने अधिकारों का दावा करता है, वह केवल अपने और अपनी मजदूरी के बारे में नहीं सोचता, वरन अपने सारे साथियों के बारे में सोचता है, जिन्होंने उसके साथ-साथ औजार नीचे रख दिये हैं और जो तकलीफों की परवाह किये बिना मजदूरों के ध्‍येय के लिए उठ खड़े हुए हैं। मेहनतकश जनों के लिए प्रत्येक हड़ताल का अर्थ है बहुत सारी तकलीफें, भयंकर तकलीफें, जिनकी तुलना केवल युध्द द्वारा प्रस्तुत विपदाओं से की जा सकती है – भूखे परिवार, मजदूरी से हाथ धो बैठना, अक्सर गिरफ्तारियाँ, शहरों से भगा दिया जाना, जहाँ उनके घरबार होते हैं तथा वे रोजगार पर लगे होते हैं। इन तमाम तकलीफों के बावजूद मजदूर उनसे घृणा करते हैं, जो अपने साथियों को छोड़कर भाग जाते हैं तथा मालिकों के साथ सौदेबाजी करते हैं। हड़तालों द्वारा प्रस्तुत इन सारी तकलीफों के बावजूद पड़ोस की फैक्टरियों के मजदूर उस समय नया साहस प्राप्त करते हैं, जब वे देखते हैं कि उनके साथी संघर्ष में जुट गये हैं। अंग्रेज मजदूरों की हड़तालों के बारे में समाजवाद के महान शिक्षक एंगेल्स ने कहा था : “जो लोग एक बुर्जुआ को झुकाने के लिए इतना कुछ सहते हैं, वे पूरे बुर्जुआ वर्ग की शक्ति को चकनाचूर करने में समर्थ होंगे।” बहुधा एक फैक्टरी में हड़ताल अनेकानेक फैक्टरियों में हड़तालों की तुरन्त शुरुआत के लिए पर्याप्त होती है। हड़तालों का कितना बड़ा नैतिक प्रभाव पड़ता है, कैसे वे मजदूरों को प्रभावित करती हैं, जो देखते हैं कि उनके साथी दास नहीं रह गये हैं और, भले ही कुछ समय के लिए, उनका और अमीर का दर्जा बराबर हो गया है! प्रत्येक हड़ताल समाजवाद के विचार को, पूँजी के उत्पीड़न से मुक्ति के लिए पूरे मजदूर वर्ग के संघर्ष के विचार को बहुत सशक्त ढंग से मजदूर के दिमाग़ में लाती है। प्राय: होता यह है कि किसी फैक्टरी या किसी उद्योग की शाखा या शहर के मजदूरों को हड़ताल के शुरू होने से पहले समाजवाद के बारे में पता ही नहीं होता और उन्होंने उसकी बात कभी सोची ही नहीं होती। परन्तु हड़ताल के बाद अध्‍ययन मण्डलियाँ तथा संस्थाएँ उनके बीच अधिक व्यापक होती जाती हैं तथा अधिकाधिक मजदूर समाजवादी बनते जाते हैं।

हड़ताल मजदूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मजदूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, वरन तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मजदूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फैक्टरी का मालिक, जिसने मजदूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मजदूरी में मामूली वृध्दि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मजदूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हजारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मजदूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में समग्र मजदूर वर्ग का दुश्मन है और मजदूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं। अक्सर होता यह है कि फैक्टरी का मालिक मजदूरों की ऑंखों में धूल झोंकने, अपने को उपकारी के रूप में पेश करने, मजदूरों के आगे रोटी के चन्द छोटे-छोटे टुकड़े फेंककर या झूठे वचन देकर उनके शोषण पर पर्दा डालने के लिए कुछ भी नहीं उठा रखता। हड़ताल मजदूरों को यह दिखाकर कि उनका “उपकारी” तो भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया है, इस धोखाधाड़ी को एक ही वार में खत्म कर देती है।

इसके अलावा हड़ताल पूँजीपतियों के ही नहीं, वरन सरकार तथा कानूनों के भी स्वरूप को मजदूरों की ऑंखों के सामने स्पष्ट कर देती है। जिस तरह फैक्टरियों के मालिक अपने को मजदूरों के उपकारी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं, ठीक उसी तरह सरकारी अफसर और उनके चाटुकार मजदूरों को यह यकीन दिलाने का प्रयत्न करते हैं कि जार तथा जारशाही सरकार न्याय की अपेक्षानुसार फैक्टरियों के मालिकों तथा मजदूरों, दोनों का समान रूप से ध्‍यान रखते हैं। मजदूर कानून नहीं जानता, उसका सरकारी अफसरों, खास तौर पर ऊँचे पदाधिकारियों के साथ सम्पर्क नहीं होता, फलस्वरूप वह अक्सर इन सब बातों पर विश्वास कर लेता है। इतने में हड़ताल होती है। सरकारी अभियोजक, फैक्टरी इंस्पेक्टर, पुलिस और कभी-कभी सैनिक कारखाने में पहुँच जाते हैं। मजदूरों को पता चलता है कि उन्होंने कानून तोड़ा है : मालिकों को कानून इकट्ठा होने और मजदूरों की मजदूरी घटाने और खुलेआम विचार-विमर्श करने की अनुमति देता है। परन्तु मजदूर अगर कोई संयुक्त करार करते हैं, तो उन्हें अपराधी घोषित किया जाता है। मजदूरों को उनके घरों से बेदखल किया जाता है, पुलिस उन दुकानों को बन्द कर देती है, जहाँ से मजदूर खाने-पीने की चीजें उधार ले सकते हैं, उस समय भी जब मजदूर का आचरण शान्तिपूर्ण होता है, सैनिकों को उनके खिलाफ भड़काने का प्रयत्न किया जाता है। सैनिकों को मजदूरों पर गोली चलाने का आदेश दिया जाता है और जब वे भागती भीड़ पर गोली चलाकर निरस्त्र मजदूरों को मार डालते हैं, तो जार स्वयं सैनिकों के प्रति आभार-प्रदर्शन करता है (इस तरह जार ने 1895 में यारोस्लाव्ल में हड़ताली मजदूरों की हत्या करने वाले सैनिकों को धन्यवाद दिया था)। हर मजदूर के सामने यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जारशाही सरकार उसकी सबसे बड़ी शत्रु है, क्योंकि वह पूँजीपतियों की रक्षा करती है तथा मजदूरों के हाथ-पाँव बाँध देती है। मजदूर यह समझने लगते हैं कि कानून केवल अमीरों के हितार्थ बनाये जाते हैं, कि सरकारी अधिकारी उनके हितों की रक्षा करते हैं, कि मेहनतकश जनता की जुबान बन्द कर दी जाती है, उसे इस बात की अनुमति नहीं दी जाती कि वह अपनी माँगें पेश करे, कि मजदूर वर्ग को हड़ताल करने का अधिकार, मजदूर समाचारपत्र प्रकाशित करने का अधिकार, कानून बनानेवाली और कानूनों को लागू करने के कार्य की देखरेख करने वाली राष्ट्रीय सभा में भाग लेने का अधिकार अवश्य हासिल करना होगा। सरकार ख़ुद अच्छी तरह जानती है कि हड़तालें मजदूरों की ऑंखें खोलती हैं और इस कारण वह हड़तालों से डरती है तथा उन्हें यथाशीघ्र रोकने का प्रयत्न करती है। एक जर्मन गृहमन्त्री ने, जो समाजवादियों तथा वर्ग-सचेत मजदूरों को निरन्तर सताने के लिए बदनाम था, जन प्रतिनिधियों के सामने यह अकारण ही नहीं कहा था : “हर हड़ताल के पीछे क्रान्ति का कई फनोंवाला साँप (दैत्य) होता है”; प्रत्येक हड़ताल मजदूरों में इस अवबोध को दृढ़ बनाती तथा विकसित करती है कि सरकार उनकी दुश्मन है तथा मजदूर वर्ग को जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष करने के वास्ते अपने को तैयार करना चाहिए।

अत: हड़तालें मजदूरों को ऐक्यबध्द होना सिखाती हैं; उन्हें बताती हैं कि वे केवल ऐक्यबध्द होने पर ही पूँजीपतियों के विरुध्द संघर्ष कर सकते हैं; हड़तालें मजदूरों को कारखानों के मालिकों के पूरे वर्ग के विरुध्द, स्वेच्छाचारी, पुलिस सरकार के विरुध्द पूरे मजदूर वर्ग के संघर्ष की बात सोचना सिखाती है। यही कारण है कि समाजवादी लोग हड़तालों को फ्युध्द का विद्यालयय्, ऐसा विद्यालय कहते हैं, जिसमें मजदूर पूरी जनता को, श्रम करने वाले तमाम लोगों को सरकारी अधिाकारियों के जुए से, पूँजी के जुए से मुक्त करने के लिए अपने दुश्मनों के खिलाफ युध्द करना सीखते हैं।

परन्तु फ्युध्द का विद्यालयय् स्वयं युध्द नहीं है। जब हड़तालें मजदूरों के बीच व्यापक रूप से फैली होती हैं, कुछ मजदूर (कुछ समाजवादियों समेत) यह सोचने लगते हैं कि मजदूर वर्ग अपने को महज हड़तालों, हड़ताल कोषों या हड़ताल संस्थाओं तक सीमित रख सकता है, कि अकेले हड़तालों के जरिये मजदूर वर्ग अपने हालात में पर्याप्त सुधाार ला सकता है, यही नहीं, अपनी मुक्ति भी हासिल कर सकता है। यह देखकर कि संयुक्त मजदूर वर्ग में, यही नहीं, छोटी हड़तालों तक में कितनी शक्ति होती है, कुछ सोचते हैं कि मजदूर पूँजीपतियों तथा सरकार से जो कुछ भी हासिल करना चाहते हैं, उसके लिए बस इतना काफी है कि मजदूर वर्ग पूरे देश में आम हड़ताल संगठित करे। इसी तरह का विचार अन्य देशों के मजदूरों द्वारा भी व्यक्त किया गया था, जब मजदूर वर्ग आन्दोलन अपने आरम्भिक चरणों में था तथा मजदूर अभी बहुत अनुभवहीन थे। पर यह ग़लत विचार है। हड़तालें तो उन उपायों में से एक हैं, जिनके जरिये मजदूर वर्ग अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करता है, परन्तु वे एकमात्र उपाय नहीं हैं। यदि मजदूर संघर्ष करने के अन्य उपायों की ओर धयान नहीं देते, तो वे मजदूर वर्ग की संवृध्दि तथा सफलताओं की गति धाीमी कर देंगे। यह सच है कि यदि हड़तालों को कामयाब बनाना है, तो हड़तालों के दौरान मजदूरों के निर्वाह के लिए कोषों का होना जरूरी है। ऐसे मजदूर कोष (आम तौर पर उद्योग की पृथक शाखाओं, पृथक व्यवसायों तथा वर्कशापों में मजदूर कोष) तमाम देशों में रखे जाते हैं। परन्तु यहाँ रूस में यह बहुत कठिन है, क्योंकि पुलिस उनका पता लगाती है, धान जब्त कर लेती है तथा मजदूरों को गिरफ्तार करती है। निस्सन्देह, मजदूर उन्हें पुलिस से छुपाने में सफल रहते हैं; स्वभावतया ऐसे कोषों को संगठित करना महत्तवपूर्ण है और हम मजदूरों को उन्हें संगठित करने के विरुध्द परामर्श नहीं देना चाहते। परन्तु यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि मजदूर कोष कानून द्वारा निषिध्द होने पर वे चन्दा देनेवालों को बड़ी संख्या में आकृष्ट करेंगे; और जब तक ऐसे संगठनों की सदस्य संख्या कम होगी, ये कोष बहुत उपयोगी सिध्द नहीं होंगे। इसके अलावा उन देशों तक में, जहाँ मजदूर यूनियनें खुलेआम विद्यमान हैं तथा उनके पास बहुत बड़े कोष हैं, मजदूर वर्ग संघर्ष के साधान के रूप में अपने को हड़तालों तक सीमित नहीं कर सकता। जो कुछ आवश्यक है, वह उद्योग के मामलों में एक विघ्न (उदाहरण के लिए संकट, जो रूस में आज समीप आता जा रहा है) है, और कारखानों के मालिक तो जानबूझकर हड़तालें तक करायेंगे, क्योंकि कुछ समय के लिए काम का बन्द होना तथा मजदूर कोषों का घटना उनके लिए लाभप्रद होता है। इसलिए मजदूर किसी भी सूरत में अपने को हड़ताल सम्बन्धाी कार्रवाइयों तथा हड़ताल सम्बन्धाी संस्थाओं तक सीमित नहीं कर सकते। दूसरे, हड़तालें वहीं सफल हो सकती हैं, जहाँ मजदूर पर्याप्त रूप में वर्ग-सचेत होते हैं, जहाँ वे हड़तालेें करने के लिए सही अवसर चुनने में सक्षम होते हैं, जहाँ वे यह जानते हैं कि अपनी माँगें किस तरह पेश की जाती हैं, और जहाँ उनके समाजवादियों के साथ सम्बन्धा होते हैं और उनके जरिये पर्चे और पैम्फलेट हासिल कर सकते हैं। रूस में ऐसे मजदूर अभी बहुत कम हैं, उनकी तादाद बढ़ाने के लिए हर चेष्टा की जानी चाहिए, ताकि मजदूर वर्ग का धयेय जन साधाारण को बताया जा सके, उन्हें समाजवाद तथा मजदूर वर्ग के संघर्ष से अवगत कराया जा सके। समाजवादियों तथा वर्ग-सचेत मजदूरों को इस उद्देश्य के लिए समाजवादी मजदूर वर्ग पार्टी संगठित कर यह कार्यभार संयुक्त रूप से सँभालना चाहिए। तीसरे, जैसाकि हम देख चुके हैं, हड़तालें मजदूरों को बताती हैं कि सरकार उनकी शत्रु है, कि सरकार के विरुध्द संघर्ष चलाते रहना चाहिए। वस्तुत: हड़तालों ने ही धाीरे-धाीरे तमाम देशों के मजदूर वर्ग को मजदूरों के अधिाकारों तथा समग्र रूप में जनता के अधिाकारों के लिए सरकारों के खिलाफ संघर्ष करना सिखाया है। जैसाकि हम कह चुके हैं, केवल समाजवादी मजदूर पार्टी ही मजदूरों के बीच सरकार तथा मजदूर वर्ग के धयेय की सच्ची अवधाारणा का प्रचार करके यह संघर्ष चला सकती है। किसी और अवसर पर हम खास तौर पर इस बात की चर्चा करेंगे कि रूस में हड़तालें किस तरह संचालित होती हैं और वर्ग सचेत मजदूरों को कैसे उनका उपयोग करना चाहिए। यहाँ हम यह इंगित कर दें कि हड़तालें जैसाकि हम ऊपर कह चुके हैं, स्वयं युध्द नहीं, वरन फ्युध्द का विद्यालयय् हैं, कि हड़तालें संघर्ष का केवल एक साधान हैं, मजदूर वर्ग आन्दोलन का केवल एक रूप हैं। अलग-अलग हड़तालों से मजदूर श्रम करने वाले तमाम लोगों की मुक्ति के लिए पूरे मजदूर वर्ग के संघर्ष की ओर बढ़ सकते हैं और उन्हें बढ़ना चाहिए, और वे वस्तुत: तमाम देशों में उस ओर बढ़ रहे हैं। जब तमाम वर्ग-सचेत मजदूर समाजवादी हो जायेंगे, अर्थात जब वे इस मुक्ति के लिए प्रयास करेंगे, जब वे मजदूरों के बीच समाजवाद का प्रसार कर सकने, मजदूरों को अपने दुश्मनों के विरुध्द संघर्ष के तमाम तरीके सिखा सकने के लिए पूरे देश में ऐक्यबध्द हो जायेंगे, जब वे एक ऐसी समाजवादी पार्टी का निर्माण करेंगे, जो सरकारी उत्पीड़न से समग्र जनता की मुक्ति के लिए, पूँजी के जुए से समस्त मेहनतकश जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष करती है, केवल तभी मजदूर वर्ग तमाम देशों के मजदूरों के उस महान आन्दोलन का अभिन्न अंग बन सकेगा, जो समस्त मजदूरों को ऐक्यबध्द करता है तथा जो लाल झण्डा ऊपर उठाता है, जिस पर ये शब्द लिखे हुए हैं : “दुनिया के मजदूरो, एक हो!”


ऽ हम उद्योग में संकटों तथा मजदूरों के लिए उनके महत्तव की अन्यत्र विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे। हम यहाँ केवल इतना कहेंगे कि हाल के वर्षों में रूस में औद्योगिक स्थिति ठीक-ठाक रही है, उद्योग “फल- फूल” रहा है, परन्तु अब (1899 के अन्त में) इस बात के स्पष्ट लक्षण दिखायी देने लगे हैं कि इस “फलने-फूलने” का अन्त संकट के रूप में होगा : वस्तुओं की बिक्री में कठिनाइयाँ, फैक्टरी मालिकों का दिवालिया होना, छोटे मालिकों का तबाह होना तथा मजदूरों के लिए भयानक विपदाएँ (बेरोजगारी, कम मजदूरी, आदि)।